सिन्धु घाटी सभ्यता का सार / sindhu ghaati sbhyta summary class 8

सिन्धु घाटी सभ्यता का सारांश  / sindhu ghaati sbhyta summary class 8 

प्राचीन भारतीय सिंधु घाटी-

भारत के अतीत का सबसे पहला प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता से प्राप्त हुआ है। इसके अवशेष सिंधु में मोहनजोदड़ो और पश्चिमी पंजाब में हड़प्पा में मिले हैं ये दोनों स्थान एक-दूसरे से बहूत दूर स्थित हैं। इनके बीच कई अन्य नगरों के अवशेष भी अवश्य दबे पड़े होंगे। विश्वास किया जाता है कि यह सभ्यता गंगा घाटी तक फैली थी। इस सभ्यता को विकसित होने में हजारों वर्ष लगे होंगे। यह धर्मनिरपेक्ष सभ्यता थी। इसने फारस, मेसोपोटामिया और मिस्र की सभ्यताओं से संबंध स्थापित किए थे। भारत की यह सभ्यता प्रकट करती है कि हजारों वर्ष पहले भी भारतवासी जीवन के तौर तरीकों से परिचित थे उन्होंने जीवन की तकनीकी प्रगति कर ली थी।

आर्यों का आना-

सिंधु घाटी सभ्यता के लोग कौन थे और वे कहाँ से आए थे-इसका कुछ पता नहीं है। संभव है कि वे यहीं के ही हों। उनकी जड़े और शाखाएँ दक्षिण भारत में मिल सकती हैं। सिंधु घाटी सभ्यता का अंत शायद सिंधु नदी की भयंकर बाढ़ों या मौसम के परिवर्तन के कारण हुआ होगा। रेत की ऊँची-ऊँची तहें उन पर जम गई होंगी और बाद में लोगों को इसकी ऊँचाई पर मकान बनाने पड़े होंगे। सिंध प्रदेश कभी बहुत समृद्ध और उपजाऊ था, पर मध्य युग के बाद वह अधिकतर रेगिस्तान रह गया था हो सकता है कि रेत ने कुछ क्षेत्रों को ढककर सुरक्षित कर दिया हो और बाकी शहर व प्राचीन सभ्यता के प्रमाण धीरे-धीरे नष्ट हो गए हों। सिंधु घाटी सभ्यता के बाद उत्तर-पश्चिम दिशा से भारत में एक के बाद एक कई बार आर्य आए थे। माना जाता है कि आर्यों का प्रवेश सिंधु घाटी युग के लगभग एक हजार वर्ष बाद हुआ था। यह भी संभव है कि पश्चिमोत्तर दिशा से समय-समय पर अनेक जातियों के लोग आते रहे हों और भारत में मिलते चले गए हों। बाद के युगों में अनेक जातियाँ आई हों और वे घुल-मिलकर वहीं रह गई हों।

प्राचीनतम अभिलेख, धर्म ग्रंथ और पुराण-

माना जाता है कि हमारे पास भारतीय संस्कृति का सबसे पुराना इतिहास वेद है। वैदिक काल का समय-निर्धारण ठीक प्रकार से नहीं हो पाया है। भारतीय इसे बहुत पुराना मानते हैं, पर यूरोपीय इसका समय बाद में मानते हैं। अधिकतर विद्वान ऋग्वेद की ऋचाओं का समय ईसा पूर्व 1500 मानते हैं, पर मोहनजोदड़ो की खुदाई के बाद से इन धार्मिक ग्रंथों को अधिक पुराना सिद्ध करने का प्रयास किया जाने लगा है। मैक्समूलर ने इसे ‘आर्य-मानव के द्वारा कहा गया पहला शब्द’ कहा है। आर्य अपने साथ उन विचारों को लेकर आए थे, जिससे ईरान में ‘अवेस्ता’ की रचना हुई थी। वेदों और अवेस्ता की भाषा में अद्भुत समता है।

वेद क्या है-

अनेक हिंदू वेदों को प्रकाशित धर्म-ग्रंथ मानते हैं। वेद की उत्पत्ति ‘विद्’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है-‘जानना’। वेद का सीधा-सादा अर्थ है ‘अपने समय के ज्ञान का संग्रह’। उसमें मूर्ति-पूजा और देव-मंदिर नहीं है। वैदिक युग में आर्यों ने आत्मा पर बहुत कम ध्यान दिया। वे मृत्यु के बाद किसी भी प्रकार के अस्तित्व में बहुत अस्पष्ट ढंग से विश्वास करते थे। ऋग्वेद मानव-जाति की पहली पुस्तक है, जिसमें मानव मन के प्रारंभिक उद्गार मिलते हैं। इसमें काव्य-प्रभाव, प्रकृति की सुंदरता और रहस्य के दर्शन होते हैं। इसमें मनुष्य के साहसिक कारनामों का वर्णन भी है। अन्य स्थानों की तरह हमारे देश में भी विचार और कर्म की दो समानांतर धाराएँ विकसित होती दिखाई देती हैं-एक जो जीवन को स्वीकार करती है और दूसरी जो जिंदगी से बचकर निकल जाना चाहती है। वैदिक संस्कृति की मूल पृष्ठभूमि परलोकवादी या इस विश्व को निरर्थक मानने वाली नहीं थी। भारत में सभ्यता के विकास के साथ ही कला, संगीत, साहित्य, नाच-गान, चित्रकला, रंग-मंच आदि का विकास हुआ।

भारतीय संस्कृति की निरंतरता-

सभ्यता और संस्कृति के आरंभ से ही विशिष्टतावाद और छुआछूत की प्रवृत्ति दिखाई देती है। यही आधुनिक युग की जाति-व्यवस्था है। बाद में यही वाद मानव-जीवन के लिए कष्टकारी बन गए। इस व्यवस्था का प्रसार सारे भारत में और उससे आगे बढ़कर पूर्वी समुद्रों तक हुआ। भारत का ईरानियों, यूनानियों, चीनियों, तथा अन्य लोगों से हजारों वर्ष तक संपर्क बना रहा, जिससे सांस्कृतिक विकास का अटूट सिलसिला बना।

उपनिषद क्या है

उपनिषद का अर्थ है अध्ययन के लिए गुरु के समीप बैठना। उपनिषदों का समय ई० पू० 800 के आसपास माना जाता है, जिनसे हमें भारतीय-आर्यों के चिंतन के विषय में पता चलता है। इनमें जाँच-पड़ताल की चेतना और चीजों के बारे में सत्य की खोज का उत्साह है। इनमें हठवाद नहीं है बल्कि वैज्ञानिक पद्धति के तत्व विद्यमान हैं। इनका विचार आत्मबोध पर आधारित है। ये व्यक्ति को आत्मा और परमात्मा संबंधी जानकारी देते हैं। इनका नाम: झुकाव अद्वैतवाद की ओर है। ये अपने समय के मतभेदों और वाद-विवाद को कम करना चाहते थे इन्होंने जादू-टोने का विरोध किया था और बिना सच्चे ज्ञान के कर्मकांड व पूजा-पाठ को व्यर्थ बताया था। ये सच्चाई पर बल देते थे और अज्ञान से ज्ञान के मार्ग की ओर बढ़ना चाहते थे।

व्यक्तिवादी दर्शन के लाभ और हानियाँ-

उपनिषदों मे बताया गया है कि प्रगति के लिए तन-मन स्वस्थ और अनुशासित रहने चाहिए। ज्ञानार्जन या किसी उपलब्धि के लिए आत्म-पीड़न और आत्म-त्याग की आवश्यकता नही है। भारतीय आर्य अपने से भिन्न अन्यों के विश्वासों और जीवन शैलियों के प्रति सहनशील बने रहे थे और लड़ाई-झगड़ों से बचते रहे थे। उन्होंने समाज में संतुलन बनाकर रखा था, पर उनके व्यक्तिवादी दृष्टिकोण ने समाज के प्रति कर्तव्यों की ओर कम ध्यान दिया था प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन बँटा और बंधा हुआ था। उनके पास एक समग्र समाज की कल्पना नहीं थी इसी कारण भारत में व्यक्तिवाद, अलगाववाद और ऊँच नीच पर आधारित जातिवाद पर अधिक बल दिया जाता रहा है। जाति-व्यवस्था में सख्ती के बढ़ने के साथ-साथ हमारी बौद्धिक जड़ता बढ़ती गई। इससे जाति की रचनात्मक शक्ति धुंधलाती चली गई।

भौतिकवाद क्या है

विश्व के अन्य भागों की तरह हम भारतीयों ने भी प्राचीन साहित्य के बहुत बड़े हिस्से को खो दिया, क्योंकि आरंभ में ग्रंथ ताड़-पत्रों या भोज-पत्रों पर लिखे जाते थे अनेक पुरानी भारतीय पुस्तकें स्वयं तो नहीं मिलीं, पर उनके चीनी और तिब्बती अनुवाद मिल गए हैं। उनमें भौतिकवाद पर लिखा गया पूरा साहित्य है। इनकी रचना उपनिषदों की रचना के ठीक बाद में हुई थी। भारत में सदियों तक भौतिकवादी दर्शन का प्रचलन रहा था। राजनीतिक और आर्थिक संगठन पर ई० पू० चौथी शताब्दी में रचित कौटिल्य की प्रसिद्ध रचना ‘अर्थशास्त्र’ में इसका उल्लेख किया गया है। भारत में भौतिकवाद साहित्य के बड़े भाग को पुरोहितों और धर्म के पुराणपंथी स्वरूप में विश्वास करने वालों ने नष्ट कर दिया था। भौतिकवादियों ने विचार, धर्म और ब्रह्मविज्ञान के अधिकारियों और स्वार्थ-प्रेरित विचारों का विरोध किया था। उन्होंने जादू-टोने और अंधविश्वास की निंदा की थी तथा अतीत की बेड़ियों से स्वयं को मुक्त करना चाहते थे उन्होंने माना था कि वर्तमान ही महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त न कोई संसार है, न स्वर्ग है और न ही नरक। शरीर से अलग कोई आत्मा नहीं है। मन, बुद्धि और अन्य सब चीजों का विकास बुनियादी तत्वों से हुआ है। नैतिक नियम मनुष्य के द्वारा बनाई गई रूढ़ियाँ मात्र हैं।

महाकाव्य, इतिहास, परंपरा और मिथक-

प्राचीन भारत के रामायण और महाभारत दो ऐसे महाकाव्य हैं, जिन्होंने व्यापक रूप से भारतीय जनता के मन पर प्रभाव डाला है। इन ग्रंथों को वास्तविक रूप ग्रहण करने में शायद सदियाँ लगी होंगी। इनमें भारतीय-आर्यों के आरंभ का वृत्तांत है। ये दोनों ग्रंथ भारतीय जीवन के अंग बन चुके हैं। इनमें विभिन्न श्रेणियों के लिए शुद्ध भारतीय ढंग से एक साथ सामग्री उपलब्ध है। उच्चतम बुद्धिजीवी से लेकर साधारण, अनपढ़ और अशिक्षित देहाती तक इनसे प्राचीन भारतीयों के रहस्य समाझ पाते हैं। वे अनेक रूपों में विभाजित और जात-पात की ऊँच-नीच में बँटे समाज को एकजुट रखने में सफल शासक वर्ग को समझ पाते हैं। भारतीय पुरा-कथाओं का इतिहास वैदिक काल तक जाता है और संस्कृत-साहित्य में प्रकट होता है। कवियों और नाटककारों ने इनके आधार पर अपनी कथाओं व सुंदर कल्पनाओं की रचना की है। इनमें अधिकतर कहानियाँ वीर गाथात्मक हैं। इनमें सत्य, लोकहित, सदाचार, बलिदान और वचन पालन को महत्व दिया गया है। इनमें तथ्य और कल्पना को सुंदर ढंग से गूंथा गया है। ये कहानियाँ जीवन के वास्तविक मूल तत्वों को प्रकट करती हैं। प्राचीनकाल में यूनानियों, चीनियों और अरबवासियों की तरह भारत में इतिहासकार नहीं थे इसलिए अब तिथियों और कालक्रम को निर्धारित करना कठिन है। कल्हण की ‘राजतरंगिनी’ एकमात्र प्राचीन ग्रंथ है, जिसे इतिहास माना जा सकता है। ईसा की बारहवीं शताब्दी में रचित इस पुस्तक में कश्मीर का इतिहास है। विदेशियों के सफ़रनामों, शिलालेखों, अभिलेखों, कलाकृतियों, इमारतों के अवशेषों, सिक्कों आदि से इतिहास को खोजने का प्रयोग किया जाता है। भारतीय जनता ने काल्पनिकता का सबसे अधिक विकास यदि किसी माध्यम से किया तो वह रामायण और महाभारत से सबसे अधिक किया।

महाभारत क्या है

महाभारत को विश्व की श्रेष्ठ रचनाओं में से एक माना जाता है। यह परंपराओं, दंतकथाओं और प्राचीन भारत की राजनीतिक व सामाजिक संस्थाओं का विश्वकोश है। इस ग्रंथ में भारत में पहले से रहने वाले लोगों और बाहर से आने वालों के घुलने- मिलने का सहज वर्णन है। इस समय नई स्थिति के अनुरूप वैदिक धर्म में संशोधन किया जा रहा था और उसी से आधुनिक हिंदू धर्म निकला। यह इसलिए संभव हुआ था, क्योंकि कि सत्य पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता। उसे देखने और उस तक पहुँचने के रास्ते अला अलग हो सकते हैं। महाभारत में हिंदुस्तान की बुनियादी एकता पर बल देने की कोशिश की गई है। भारत का पहले एक और भी नाम था आर्यावर्त, यानि आर्यों का देश। यह नाम मध्य-भारत में विंध्य पर्वत तक फैले उत्तर- भारत के क्षेत्र तक सीमित था। रामायण की कथा दक्षिण में आर्यों के विस्तार की कहानी है। अंदाजा लगाया जाता है कि महाभारत का युद्ध ईसा पूर्व चौदहवीं शताब्दी के आस-पास हुआ होगा। महाभारत के युद्ध से अखंड भारत की अवधारणा का प्रारंभ हुआ। उस समय आधुनिक अफ़गानिस्तान का बहुत बड़ा हिस्सा भारत में शामिल था। उस समय दिल्ली के निकट बसे हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ नामक पुराने शहर भारत की राजधानी बने थे। महाभारत के कृष्ण से संबद्ध आख्यान और भगवद्गीता भी है। गीता में दर्शन के साथ-साथ शासनकला और सामान्य रूप से जीवन के नैतिक और आचार संबंधी सिद्धांतों पर बल दिया गया है इसका लक्ष्य लोक मंगल है। धर्म कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का सम्मिश्रण है, जो समय के साथ बदलता है।

भगवद्गीता क्या है

भगवद्गीता महाभारत का 700 श्लोकों का हिस्सा है, जिसका अपना विशेष महत्व है। इसकी रचना बौद्धकाल से पहले हुई थी। सारे देश में इसके प्रति विशेष श्रद्धा है और सभी इसकी व्याख्या अपने-अपने ढंग से करते हैं। यह सारी मानव जाति को दिशा दिखाने वाली रचना है। यह अत्यन्त संकटकाल में लिखी गई रचना मानी जाती है। इसकी असंख्य व्याख्या की गई हैं और अब भी लगातार की जा रही हैं। आधुनिक युग में तिलक, अरविंद घोष, गांधी आदि ने इसकी अपने-अपने ढंग से व्याख्याएँ की हैं। गांधी ने इसे हिंदी में अपने दृढ़ विश्वास का आधार बनाया है। कुछ लोगों ने धर्म कार्य के लिए हिंसा और युद्ध का औचित्य इसी से सिद्ध किया है। गीता का आरंभ महाभारत का युद्ध आरंभ होने से पहले युद्ध-क्षेत्र में अर्जुन और कृष्ण के बीच संवाद से हुआ है। अर्जुन की अंतरात्मा युद्ध में अपने सगे-संबंधियों की हत्या नहीं करना चाहती थी वह इनसान की पीड़ित आत्मा का प्रतीक बन जाता है। गीता में बहुत कुछ ऐसा है, जो आध्यात्मिक है। इसमें मानव विकास के तीन मार्गों ज्ञान, कर्म और भक्ति के बीच समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है। इसमें भक्ति पर अधिक बल दिया गया है। गीता में मानव अस्तित्व की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि को प्रस्तुत किया गया है। धर्म की महत्ता इसमें स्वीकार की गई है। गीता का संदेश न तो सांप्रदायिक है और न ही किसी विशेष विचारधारा से संबंधित है। इसकी दृष्टि सार्वभौमिक है। इसलिए मनुष्य हजारों वर्षों के बाद भी अपने जीवन में आए संकटों से पार निकलने के लिए इसका सहारा लेते हैं।

महावीर और बुद्ध : वर्ण-व्यवस्था-

जैन धर्म और बौद्ध धर्म दोनों वैदिक धर्म से कटकर अलग हुए थे। उन्होंने वेदों का प्रमाण नहीं माना था। दोनों अहिंसा पर बल देते थे और भिक्षुओं-पुरोहितों के संघ बनाते थे। उनका दृष्टिकोण यथार्थवादी और बुद्धिवादी है। जैन धर्म ने जीवन और विचार में तपस्या के पहलू पर बल दिया है और माना है कि सत्य हमारे दृष्टिकोण की सापेक्षता में होता है। जैन धर्म के संस्थापक महावीर और बौद्ध धर्म के संस्थापक बुद्ध समकालीन थे। वे दोनों क्षत्रिय थे। बुद्ध में लोक-प्रचलित धर्म, अंधविश्वास, कर्म-कांड और पुरोहित-प्रबंध पर हमला करने का साहस था। उनका आग्रह तर्क, विवेक पर था। उनका बल नैतिकता पर था। उनकी पद्धति मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की थी। उन्होंने वर्ण-व्यवस्था पर सीधी चोट नहीं की थी, पर अपनी संघ व्यवस्था में इसे कोई स्थान नहीं दिया था जैन धर्म, जो अपने मूल धर्म के विरोध में खड़ा हुआ था, बड़ी जात के प्रति सहिष्णु था। इसने स्वयं अपने को उसके अनुरूप बना लिया था और इसलिए आज भी जीवित है। यह हिंदू-धर्म की एक शाखा के रूप में हैं। बौद्ध धर्म में जाति-व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया गया है।

बुद्ध की शिक्षा-

बुद्ध ने ब्रह्म ज्ञान में डूबे रहने वाले भारतीयों को नया और मौलिक संदेश दिया। उन्होंने सभी जातियों को अपने धर्म में मिलने की बात कही। उन्होंने करुणा और प्रेम का संदेश दिया। उन्होंने माना कि मनुष्य को क्रोध पर दया से और असत् पर सत् से विजय पाना चाहिए। जो व्यक्ति स्वयं पर विजय प्राप्त करता है, वही सच्चा विजेता होता है। मनुष्य की जाति जन्म से नहीं बल्कि कर्म से तय होती है। उन्होंने विवेक, तर्क और अनुभव का सहारा लेकर सभी को अपने मन से सत्य की खोज करने के लिए कहा। सत्य की जानकारी की कमी ही सब दुखों का कारण है। उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व के बारे में कुछ नहीं कहा। उनकी पद्धति मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर टिकी हुई थी। बौद्ध धर्म में वेदना और दुख पर बहुत बल दिया गया। उन्होंने ‘चार आर्य सत्यों’ का निरूपण किया। दुख की स्थिति के अंत से निर्वाण की प्राप्ति होती है। बुद्ध का मार्ग मध्यम मार्ग था। यह अतिशय भोग और अतिशय तप के बीच का रास्ता था। उन्होंने अपने शिष्यों को बताया कि उनके विचार वे लोग ही समझ सकते थे, जो उनके अनुसार आचरण कर सकते थे।

बुद्ध-कथा

बुद्ध की असंख्य मूर्तियाँ उनके महान विचारों के प्रतीक हैं। उनकी आकृति जहाँ उनके शांत और धीर रूप को प्रकट करता है. वहाँ वह जीवन-शक्ति से भरी हुई भी प्रतीत होती है। कठिन परिस्थितियां बार-बार यह अहसास करवाती है कि हमें संघर्ष से दूर नहीं भागना चाहिए, बल्कि शांत दृष्टि से उसका मुकाबला करना चाहिए। बुद्ध के बारे में सोचते हुए हमें एक नई ऊर्जा और क्रांति का अहसास होता है।

चंद्रगुप्त और चाणक्य : मौर्य साम्राज्य की स्थापना-

भारत में बौद्ध धर्म का प्रचार बहुत ही मंद गति से हुआ। यह एक प्रकार से शासक वर्ग और पुरोहितों के बीच संघर्ष का प्रतीक था पश्चिमोत्तर हिस्से पर सिकंदर के आक्रमण से चंद्रगुप्त और चाणक्य के विलक्षण व्यक्तित्व सामने आए। ये दोनों मगध के शक्तिशाली नंद साम्राज्य से निकाल दिए गए थे, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। चंद्रगुप्त और चाणक्य ने राष्ट्रीयता के चिर नवीन नारे के द्वारा लोगों को विदेशी आक्रमण के विरुद्ध उकसाया और यूनानी सेना को हराकर तक्षशिला पर अधिकार कर लिया। लोग चंद्रगुप्त के साथ हो गए और पाटलिपुत्र को अपने कब्जे मे ले लिए। सिकंदर की मृत्यु के दो ही वर्ष में उन्होंने पाटलिपुत्र पर अधिकार करके मौर्य साम्राज्य की स्थापना कर दी थी। इस नए राज्य का पूरा वर्णन सिल्यूकस के राजदूत मेगस्थनीज़ और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिल जाता है। कौटिल्य का दूसरा नाम चाणक्य था। कौटिल्य का तीसरा नाम विष्णुगुप्त भी था। वह बुद्धिमान और अति कर्मठशील था। वह अपना लक्ष्य पाने के लिए हर प्रकार के तरीके का इस्तेमाल करता था। शान-शौकत और छोटे पदों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी वह सम्राट को भी अपने शिष्य के रूप में देखता था। चाणक्य के अर्थशास्त्र में अनेक विषयों पर लिखा गया है। उसने शासन के सिद्धांत और व्यवहार के लगभग सभी पक्षों पर विचार किया था उसने विधवा विवाह को मान्यता दी और विशेष परिस्थितियों में तलाक को स्वीकार किया। उस समय राज्याभिषेक के समय राजा को शपथ लेनी पड़ती थी कि वह प्रजा की सेवा करेगा। यदि कोई राजा अनीति की राह पर चलता तो प्रजा को अधिकार था कि वह उसे हटाकर दूसरे को राजा बना सकती थी।

अशोक कौन था

अशोक 273 ई० पू० में महान साम्राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। इससे पहले वह पश्चिमोत्तर प्रदेश का शासक रह चुका था और उसके साम्राज्य में भारत का बहुत बड़ा भाग आ गया था। उसका विस्तार मध्य एशिया तक हो चुका था। उसने पूर्वी तट के कलिंग प्रदेश को जीतने का निश्चय किया था। कलिंग वासियों के साथ हुए इस युद्ध में भयंकर कत्लेआम हुआ था। अशोक की सेना जीत गई थी। लेकिन अपार नरसंहार को देखकर अशोक के हृदय में युद्ध से विरक्ति हो गई थी और वह बुद्ध की शिक्षाओं को मानने लगा था। उसने माना था कि सच्ची विजय कर्तव्य और धर्म पालन करके लोगों के हृदय को जीतने में थी वह जीवमात्र की रक्षा करना चाहता था ताकि मन की शांति और आनंद प्राप्त हो सके। अशोक अद्भुत शासक था जिसे आज भी भारत और एशिया के अनेक देशों में प्यार से याद किया जाता है। वह जनता की सेवा के लिए सदा तत्पर रहता था। स्वयं बौद्ध धर्म को स्वीकार करने वाला अशोक दूसरे धर्मों को बराबर आदर और महत्व देता था। उसने देशी-विदेशी कारीगरों की सहायता से बड़ी इमारतों और स्तंभों का निर्माण करवाया। ई० पू० 232 में अशोक की मृत्यु हुई। उसका नाम अन्य महान हस्तियों की तरह हमेशा सूनहरे अच्छरों में लिखा जाएगा।

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